‘जाट, नॉन-जाट’ और ‘कांग्रेस में फूट’ की सच्चाई क्या है?
‘जाट, नॉन-जाट’ और ‘कांग्रेस में फूट’ की सच्चाई क्या है?
हरियाणा बीजेपी द्वारा 2 लाइन देकर बहुत सारे तथाकथित राजनीतिक विश्लेषकों को चैनलों और सोशल मीडिया पर सक्रिय कर दिया गया है।
पहली लाइन- जाट, नॉन जाट…
दूसरी लाइन- कांग्रेस में फूट…
बीजेपी के नेता सार्वजनिक मंचों से अपनी पार्टी को धमकियां देते हैं (राव इंद्रजीत, राव नरबीर, आरती राव), अपनी सरकार की आलोचना करते हैं(अरविंद शर्मा, रामबिलास शर्मा, विज, लीलाराम), अनदेखी के शिकार होते हैं (रामबिलास शर्मा, रमेश कौशिक, कैप्टन अभिमन्यु, ओपी धनखड़), भीतरघात के आरोप लगाते हैं (रणजीत चौटाला, मोहन लाल बड़ौली), अपनी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं (राव इंद्रजीत, अरविंद शर्मा)। बीजेपी के भीतर ऐसे नेताओं की भरमार है, जिन्होंने ना पहले खट्टर को अपना नेता माना था और ना जो नायब सैनी को अपना नेता मानते हैं। यहां तक कि बीजेपी के नेता कैमरे के सामने एक-दूसरे को सीधे बहन की गाली दे देते हैं (अरविंद शर्मा-मनीष ग्रोवर)। बावजूद इसके मीडिया के मुताबिक बीजेपी में कोई फूट नहीं है।
दूसरी तरफ, कांग्रेस के नेताओं ने कभी एक-दूसरे के बारे में असभ्य भाषा नहीं बोली, कभी एक-दसरे पर कोई निम्न स्तर की टिप्पणी नहीं की। लेकिन मीडिया के मुताबिक सारी फूट कांग्रेस में है।
अब बात करते हैं जाट, नॉन जाट की। ज़्यादा दूर नहीं जाते। इसी लोकसभा चुनाव के नतीजों की बात करते हैं। सटीक आंकड़ा किसी के पास नहीं है लेकिन ज्यादातर लोग मानते हैं कि प्रदेश में जाटों की संख्या 20 से 25 प्रतिशत है। लेकिन कांग्रेस को तो चुनाव में लगभग 50 प्रतिशत वोट मिले। क्या कोई महान विश्लेषक बताएगा कि अगर हरियाणा में जाट, नॉन-जाट की राजनीति चल रही है तो ये कांग्रेस को 47.6% वोट कहां से मिले?
इसबार SC रिजर्व दोनों सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की। कोई बताएगा कि अगर जाट, नॉन-जाट की राजनीति चल रही है तो ये सीटें बीजेपी ने क्यों नहीं जीती? अगर हरियाणा में जाट, नॉन-जाट की राजनीति होती तो क्या दीपेंद्र कोसली से जीतते? क्या दीपेंद्र की साढ़े 3 लाख वोटों से जीत हो सकती थी? क्या सैलजा ढाई लाख वोटों से जीततीं? क्या जयप्रकाश जेपी आदमपुर से जीतते? क्या सिर्फ जाट वोटों के दम पर सतपाल ब्रह्मचारी सोनीपत से जीत पाते?
अगर कोई 2019 विधानसभा चुनाव के नतीजों को भी देखेगा तो उसे समझ आ जाएगा कि ये जाट, नॉन-जाट वाला ढोल उसी चुनाव में फट गया था। क्योंकि कालका, रादौर, नारायणगढ़ से लेकर सोनीपत, रोहतक और फरीदाबाद NIT जैसी तथाकथित नॉन-जाट सीटें कांग्रेस ने जीतीं थी। कलायत, राई, गन्नौर जैसी कथित जाट सीटें बीजेपी ने जीती थीं।
ये सब नतीजे बिल्कुल आंखों के सामने होते हुए भी ये महान विश्लेषक क्यों इसी एजेंडा पर बात करते हैं? एक वजह तो ये है कि जो बीजेपी की लाइन पर चलेगा, उसे टीवी-अख़बार में जगह मिलेगी, सरकारी शाबाशी मिलेगी।
लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह दूसरी है। वजह ये है कि जात-पात पर बात करने के लिए कोई पढ़ाई-लिखाई की ज़रूरत नहीं है, जो गोबर दिमाग़ में भरा है, उसे कैमरे पर उढेल देना है। लेकिन इसके अलावा दूसरे मुद्दों पर बात करने के लिए पढ़ना पड़ता है, आंखें ख़र्च करनी पड़ती है। ग्राउंड पर भी जाना पड़ता है। लेकिन जब ये किए बिना काम चल रहा है तो
कोई क्यूं NCRB के डाटा को पढ़ेगा, जिससे पता चलता है कि हरियाणा क्राइम के मामले में देश में टॉप पर है।
कोई क्यूं सामाजिक प्रगति सूचकांक (SPI) रिपोर्ट पढ़ेगा, जिससे पता चलता है कि हरियाणा देश का सबसे असुरक्षित राज्य है और महिलाओं के लिए नर्क बन चुका है।
कोई क्यूं NSO, CMIE की रिपोर्ट पढ़ेगा, जिससे पता चलता है कि हरियाणा बेरोजगारी में पूरे देश में नंबर वन पर है।
क्यूं कोई RBI की रिपोर्ट पढ़ेगा, जिससे पता चलता है कि हरियाणा प्राइवेट निवेश के मामले में देश का सबसे फिसड्डी राज्य बन गया है।
कोई क्यूं घोटालों की फाइल और ख़बरों में माथा मारेगा, जिससे पता चलता है कि घोटालों के मामले हरियाणा देश में पहले नंबर पर है।
कोई क्यूं सड़क, स्कूल, शिक्षा, अस्पताल, फैमिली आईडी, प्रॉपर्टी आईडी की बात करेगा, जबकि उन्हें पता है कि राजनीतिक विश्लेषक तो सिर्फ जात-पात, जाट-नॉन जाट, कांग्रेस की फूट पर चर्चा करने वाले को ही माना जाता है।
इसलिए हरेक हरियाणवी की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे एजेंडाधारी विवरणकारियों को सिरे ख़ारिज किया जाए और उन्हें असली मुद्दों पर बात करने के लिए मजबूर किया जाए।
ये लेखक के अपने विचार हैं।
#महेंद्र_सिंह